

एलोवेरा आज के समय में एक महत्वपूर्ण फसल साबित हो रही है, इसे घृतकुमारी या ग्वारपाठा भी कहा जाता है, क्योकि ऐलोवेरा का उपयोग आयुर्वेदिक दवाई बनाने के साथ ही सौंदर्य उत्पाद बनाने लेकर खाने-पीने के सामान और कपडा उधोग में भी इसकी मांग बढ़ी है, लेकिन फिर भी इसकी खेती की पूर्ण जानकारी की कमी के कारण किसान इसका लाभ नहीं ले पा रहे है।
तो आइये आज हम आप को इसकी खेती के तरीके और लाभ की जानकरी उपलब्ध कराते है
तो आइये आज हम आप को इसकी खेती के तरीके और लाभ की जानकरी उपलब्ध कराते है

ऐलोवेरा की किस्मे
ऐलोवेरा की किस्मे
स्टोन ऐलोवेरा
स्टोन ऐलोवेरा
इसकी पत्तिया भूरे हरे रंग की होती है, और उचाई कम होती है , जिसमे और फूल लाल नारंगी रंग के होते हैं।

क्लाइम्बिंग ऐलोवेरा
क्लाइम्बिंग ऐलोवेरा
इसकी पत्तिया गहरे हरे रंग की होती है जिसकी उचाई ५ मी तक हो सकती है, फूल लम्बे और पिले नारंगी होते है।


कैप ऐलोवेरा
कैप ऐलोवेरा
यह सब से लोकप्रिय प्रजाति है जो आयुर्वेदिक और सौन्दर्य उत्पाद बनाने वाली कंपनी में सब से उपयोगी होती है, इसमें लगने वाले लाल पुष्प बहुत आकर्षित होते हैं।


कैंडेलाब्रा ऐलोवेरा
कैंडेलाब्रा ऐलोवेरा
एक छोटे पेड़ की तरह 10 फीट तक बढ़ सकता है, यह सुन्दर लाल नारंगी का फूल पैदा करता है और फूल एक अनूठी उपस्थिति के लिए पत्तियों से ऊपर उठते हैं, अध्ययनों से यह साबित हुआ है कि कैंडेलबरा में ऐसे तत्व होते हैं जो हानिकारक जीवों से लड़ सकते हैं।


भूमि का चयन
भूमि का चयन
एलोवेरा की खेती कम उपजाऊ भूमि में सिंचित और असंचित सुविधाओं के साथ आसानी से की जा सकती है, लेकिन ऊचे उठे खेत बेहतर माने जाते है, इसे खेत की मेड़ भी लगाया जा सकता है, क्योंकी एलोवेरा के पोधो को आवारा पशु नहीं खाते इसलिए खेतो की सुरक्षा में लगने वाला धन और समय भी बच जाता है।


जलवायु
जलवायु
एलोवेरा की खेती शुष्क मौसम के प्रति अनुकूल होती है, यह अधिकतम ५५ °Cऔर न्यूनतम २२ से ३० °C का तापमान तक भी सहन कर सकती है, पर पुष्पन के समय अधिक गर्मी /धुप की आवश्यता होती है। लेकिन बारिश शुरू होने से पहले इसकी बुवाई लागत, समय और उत्पादन के लिए लाभदायक होती है।


खेती के तरीके
खेती के तरीके
ऐलोवेरा की खेती दोनो प्रकार से की जा सकती हैं, इसे मुख्य खेत में सीधे बीजो की बुवाई कर और नर्सरी से पौधे लाकर भी स्थापित भी किये जा सकते है, किन्तु पोधो की लागत बीज की बुवाई से महंगी होती है। जो सामान्यतः ७ से १२ रु प्रति पौधा भी हो सकती है।


भूमि की तैयारी और खाद का प्रयोग
भूमि की तैयारी और खाद का प्रयोग
खेत तैयार करने के लिए भूमि में ४ से ५ इंच गहरी जुताई करे और फिर २ से ३ बार पाटा चला कर समतल बना ले, जुताई के समय खेतो में १२ से १५ टन गोबर खाद शामिल करे, यदि आवश्यक हो तो मृदा परीक्षण के बाद किसान एनपीके 120: 130: 50 किग्रा / एकड़ को भी शामिल कर सकता है।


पौधों का रोपण
पौधों का रोपण
हमेशा ध्यान रखे, बीज/ पौधे प्रतिष्ठित संस्था या सरकारी पौधा घर से लेना चाहिए, हमेशा ३ से ४ माह पुराने पोधो का चयन करना चाहिए, दो पौधो के ५० से ६० से मी की दुरी रखे , और दो पंक्तियों के बिच २ मी की दुरी रखे, समय अनुसार यदि पौधो के निचले भाग से नया पौधा निर्मित होता है, तो उसे नए पौधे के रूप में स्थापित किया जा सकता हैं। रोपण के तुरंत बाद सिंचाई महत्वपूर्ण है, टपक सिंचाई भी अच्छे परिणाम देती है


फसल की देखभाल रखरखाव
फसल की देखभाल रखरखाव
ऐलोवेरा की फसल की खरपतवार और जल भराव से देखभाल महत्वपूर्ण है, निराई गुड़ाई फसल लगाने के एक माह बाद समय अनुसार करे चुकी ऐलोवेरा की फसल में जल जमाव की वजह से सड़न रोग अधिक होता है इसलिए ऊंची उठी क्यारी बनाये और मिट्टी चढ़ाते रहें जिसे पौधो का गिरना कम हो जाएगा, यदि पत्तियो पर तने धब्बे और तने में सड़न दिखाई दे तो ये फफूंदी की वजह से हो सकता है इसलिए मेंकोजेब डाईथेन एम् ४५ का निर्देशानुसार उपयोग करें, यदि माहु का प्रभाव दिखाई दे तो पाईरेथिन का छिड़काव करें


कटाई
कटाई

रोपाई के १० -१५ महिनों में पत्तियाँ पूर्ण विकसित एवं कटाई के योग्य हो जाती हैं। पौधे की कटाई निचली एवं पुरानी पत्तियों को पहले काटना चाहिए ,इसके बाद लगभग ४५ दिन बाद पुन: निचली पुरानी पत्तियों की कटाई/तुड़ाई करें। इस प्रकार यह प्रक्रिया तीन-चार वर्ष तक दोहराई जा सकती है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से लगभग प्रतिवर्ष ५० -५५ टन ताजी पत्तियों की प्राप्ति होती है। दूसरे एवं तीसरे वर्ष २० प्रतिशत तक वृद्धि होती है। यदि ग्वारपाठे के एक स्वस्थ पौधे से ४०० ग्राम (मिली) गूदा भी मिलता है, जिसका बाजार भाव 100 रु. प्रति किग्रा तक हो सकता है


कटाई के बाद प्रबंन्धन एवं प्रसंस्करण
कटाई के बाद प्रबंन्धन एवं प्रसंस्करण
विकसित पौधों से निकाली गई, पत्तियों को सफाई करने के बाद साफ पानी से धो लिया जाना चाहिए , जिससे मिट्टी ठीक से साफ हो जाए,इन पत्तियों को पन्नी में लपेट कर भी संरक्षित रखा जा सकता है और यदि प्रसंकरण की सुविधा उपलब्ध है तो पत्तियों के निचले भाग में कट लगा देना चाहिए जिसे एक तरल पिले रंग का पदार्थ निकलता है जिसे एकत्र कर वाष्पीकरण कर लम्बे समय के लिए एकत्र किया जा सकता है, जिसका बाजार मूल्य भी अधिक मिलता है, इसके आलावा तेज चाकू से पत्ती के ऊपरी सतह को निकाल कर पत्ती के गूदे को एकत्र कर भी बाजार में बेचा जा सकता हैं।


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